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भंग खाते हैं न गाँजा न चरस पीते हैं | शाही शायरी
bhang khate hain na ganja na charas pite hain

ग़ज़ल

भंग खाते हैं न गाँजा न चरस पीते हैं

फ़ैज़ ख़लीलाबादी

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भंग खाते हैं न गाँजा न चरस पीते हैं
हम वो भंवरे हैं जो एहसास का रस पीते हैं

आप इस ढंग से अमृत भी नहीं पी सकते
जिस हुनर-मंदी से हम अश्क-ए-नफ़स पीते हैं

सब यहीं छोड़ के जाना है ख़बर है लेकिन
फिर ये हम किस लिए दुनिया की हवस पीते हैं

जो तिरी याद के कीड़े हैं बदन के अंदर
वो मिरी रूह को खाते हैं प्लस पीते हैं

तब कहीं होता है इक शहद का छत्ता तय्यार
अन-गिनत फूलों का ख़ूँ जब ये मगस पीते हैं

आप इक बूँद भी पी लें तो ग़शी आ जाए
ग़म के आँसू जो असीरान-ए-क़फ़स पीते हैं

'फ़ैज़' की फ़िक्र की बोतल में है जो ज़हर-ए-सुख़न
देखना है की अभी कितने बरस पीते हैं