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भले ही मिरा हौसला पस्त होता | शाही शायरी
bhale hi mera hausla past hota

ग़ज़ल

भले ही मिरा हौसला पस्त होता

राशिद मुफ़्ती

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भले ही मिरा हौसला पस्त होता
मुक़ाबिल तो कोई ज़बरदस्त होता

गुज़ारा तो पहले भी करता ही था मैं
मज़ा जब था बिल्कुल तही-दस्त होता

तिरी दस्त-गीरी कहाँ और कहाँ मैं
तिरा आसरा ही सर-ए-दस्त होता

मैं फूटा था जिस शाख़ पर बन के कोंपल
उसी शाख़ में काश पैवस्त होता

गिलास एक था पीने वाले कई थे
तो क्या मुंतक़िल दस्त-दर-दस्त होता

कहीं हम को बे-दख़्ल कर दे न कोई
नहीं हम से घर का दर-ओ-बस्त होता

तुम्ही हो जो लाए हो मुझ को यहाँ तक
न तुम नीच होते न मैं पस्त होता

कहा तू ने माना न अफ़सोस अपना!
बुलंदी पे 'राशिद' ब-यक-जस्त होता