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बेज़ार ज़िंदगी से दिल-ए-मुज़्महिल नहीं | शाही शायरी
bezar zindagi se dil-e-muzmahil nahin

ग़ज़ल

बेज़ार ज़िंदगी से दिल-ए-मुज़्महिल नहीं

तालिब चकवाली

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बेज़ार ज़िंदगी से दिल-ए-मुज़्महिल नहीं
शायद ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ अभी दर्द-ए-दिल नहीं

अपना तो उस ने साथ निभाया है उम्र-भर
कुछ लोग कह रहे हैं कि ग़म मुस्तक़िल नहीं

दीवाना-ए-मफ़ाद है बेगाना-ए-ख़ुलूस
वो अहल-ए-अक़्ल-ओ-होश सही अहल-ए-दिल नहीं

शो'ले कहाँ से आएँगे कैसे खिलेंगे फूल
ज़ख़्मों की आग दिल में अगर मुस्तक़िल नहीं

वो तो हमारी बात को समझेंगे किस तरह
जिन का दिमाग़ तो है मगर जिन का दिल नहीं

क्या ख़ूब इंहिमाक है महव-ए-ख़याल का
'तालिब' ख़ुदा की ज़ात भी इस में मुख़िल नहीं