EN اردو
बेज़ार फिर न होंगे कभी ज़िंदगी से हम | शाही शायरी
bezar phir na honge kabhi zindagi se hum

ग़ज़ल

बेज़ार फिर न होंगे कभी ज़िंदगी से हम

शांति लाल मल्होत्रा

;

बेज़ार फिर न होंगे कभी ज़िंदगी से हम
हो लें तिरे क़रीब जो ख़ुश-क़िस्मती से हम

ऐ काश हम भी होते कभी इतने ख़ुश-नसीब
ग़म बाँटते किसी का तो हँसते किसी से हम

तुम ने बुला लिया तो चले आए बज़्म में
कब चाहते थे क़ुर्ब-ए-हरीफाँ ख़ुशी से हम

अंजाम-ए-तूर आज भी अपनी नज़र में है
ग़श खा न जाएँ आप की जल्वागरी से हम

जी चाहता है राज़-ए-दिल-ए-गुल तो कुछ खुले
बुलबुल की बात पूछ लें जा कर कली से हम

नाज़-ओ-नियाज़ इशवा-ओ-ग़म्माज़ियाँ न सीख
ऐ हुस्न कह रहे हैं दिल-ए-आशिक़ी से हम

'शादाँ' की है सदा की पलट आए इंक़लाब
आजिज़ नहीं हैं आज भी फ़र्मांं-दही से हम