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बेजा है रह-ए-इश्क़ में ऐ दिल गिला-ए-पा | शाही शायरी
beja hai rah-e-ishq mein ai dil gila-e-pa

ग़ज़ल

बेजा है रह-ए-इश्क़ में ऐ दिल गिला-ए-पा

नज़ीर अकबराबादी

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बेजा है रह-ए-इश्क़ में ऐ दिल गिला-ए-पा
ये और ही मंज़िल है नहीं मरहला-ए-पा

हंगाम-ए-ख़िराम उस के हुजूम-ए-दिल-ए-उश्शाक़
ग़श-कर्दा हैं ठोकर के बहर-फ़ासला-ए-पा

कल बोसा-ए-पा हम ने लिया था सो न आया
शायद कि वो बोसा ही हुआ आबला-ए-पा

उस पा की रह-ए-रश्क में नाज़ुक क़दमों के
फिरते हैं भटकते हुए सौ क़ाफ़िला-ए-पा

सौ नाज़ से ठोकर ब-सर-ए-अर्श लगाना
उस गुल के सिवा किस का है ये हौसला-ए-पा

गुल-बर्ग पे रखते ही क़दम हँस के जो खींचा
शायद हुई सख़्ती से रग-ए-गुल ख़िला-ए-पा

दिल से रह-ए-दिल-बस्तगी कब तय हो 'नज़ीर' आह
वो ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल जो न हो सिलसिला-ए-पा