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बेगानगी का अब्र-ए-गिराँ-बार खुल गया | शाही शायरी
beganagi ka abr-e-giran-e-bar khul gaya

ग़ज़ल

बेगानगी का अब्र-ए-गिराँ-बार खुल गया

मुनीर नियाज़ी

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बेगानगी का अब्र-ए-गिराँ-बार खुल गया
शब मैं ने उस को छेड़ा तो वो यार खुल गया

गलियों में शाम होते ही निकले हसीन लोग
हर रहगुज़र पे तबला-ए-अत्तार खुल गया

हम ने छुपाया लाख मगर छुप नहीं सका
अंजाम-ए-कार राज़-ए-दिल-ए-ज़ार खुल गया

था इशरत-ए-शबाना की सरमस्तियों में बंद
बाद-ए-सहर से दीदा-ए-गुलबार खुल गया

आया वो बाम पर तो कुछ ऐसा लगा 'मुनीर'
जैसे फ़लक पे रंग का बाज़ार खुल गया