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बेगाना हो के बज़्म-ए-जहाँ देखता हूँ मैं | शाही शायरी
begana ho ke bazm-e-jahan dekhta hun main

ग़ज़ल

बेगाना हो के बज़्म-ए-जहाँ देखता हूँ मैं

शकील बदायुनी

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बेगाना हो के बज़्म-ए-जहाँ देखता हूँ मैं
दुनिया के रंग-ओ-बू का समाँ देखता हूँ में

रौशन-ज़मीर जैसे कोई सर्फ़-ए-दीद होए
यूँ जल्वा-हा-ए-कौन-ओ-मकाँ देखता हूँ में

अर्ज़ां है ज़ुल्म-ओ-जौर की उफ़्तादगी मगर
जिन्स-ओ-वफ़ा-ओ-मेहर-ए-गराँ देखता हूँ मैं

इक सम्त जश्न-ए-शादी-ओ-हंगामा-ए-निशात
इक सम्त हश्र आह-ओ-फ़ुग़ाँ देखता हूँ मैं

शरह-ए-अलम दराज़ है अल-क़िस्सा ऐ 'शकील'
इक दाग़ अपने दिल में निहाँ देखता हूँ मैं