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बेचते क्या हो मियाँ आन के बाज़ार के बीच | शाही शायरी
bechte kya ho miyan aan ke bazar ke beach

ग़ज़ल

बेचते क्या हो मियाँ आन के बाज़ार के बीच

वाजिद अमीर

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बेचते क्या हो मियाँ आन के बाज़ार के बीच
और अना काहे को रख छोड़ी है बेवपार के बीच

उस घड़ी अद्ल की ज़ंजीर कहाँ होती है
जब कनीज़ों को चुना जाता है दीवार के बीच

शहर होता है सितारों के लहू से रौशन
तश्त में सर भी पड़े होते हैं दरबार के बीच

कभी उस राह में फल-फूल लगा करते थे
अब लहू काटते हैं काबुल-ओ-क़ंधार के बीच

कर्ब के वास्ते मौजूद है दुनियाए-ए-बहिश्त
सच मुअ'ल्लक़ है अभी आतिश-ओ-गुलज़ार के बीच

राख बैठेगी तो फिर आग रवाना होगी
जाने कब से जो दहकती रही कोहसार के बीच

शाम उतरती है तो 'वाजिद' मैं यही सोचता हूँ
आज का दिन भी गया यादों के अम्बार के बीच