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बेचैन हूँ ख़ूँनाबा-फ़िशानी में घिरा हूँ | शाही शायरी
bechain hun KHunaba-fishani mein ghira hun

ग़ज़ल

बेचैन हूँ ख़ूँनाबा-फ़िशानी में घिरा हूँ

सैफ़ ज़ुल्फ़ी

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बेचैन हूँ ख़ूँनाबा-फ़िशानी में घिरा हूँ
भीगे हुए लफ़्ज़ों के मआनी में घिरा हूँ

जो पेड़ पकड़ता हूँ उखड़ जाता है जड़ से
सैलाब के धारे की रवानी में घिरा हूँ

मफ़्हूम का साहिल तो नज़र आता है लेकिन
मैं देर से गिर्दाब-ए-मआनी में घिरा हूँ

अब लोग सुनाते हैं मुझे मेरे ही क़िस्से
मैं फैल के अपनी ही कहानी में घिरा हूँ

अम्बोह-ए-मह-ओ-साल का क्या बार उठेगा
ठहरे हुए लम्हे की गिरानी में घिरा हूँ

जिस शख़्स को चाहा है उसी शख़्स के कारन
'ज़ुल्फ़ी' मैं किसी कर्ब-ए-बयानी में घिरा हूँ