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बेबसी की धूप है ग़मगीन क्या | शाही शायरी
bebasi ki dhup hai ghamgin kya

ग़ज़ल

बेबसी की धूप है ग़मगीन क्या

आदिल हयात

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बेबसी की धूप है ग़मगीन क्या
फिर रहा है दर-ब-दर मिस्कीन क्या

हँस रहा हूँ बेबसी की धूप में
हो रही है ज़ौक़ की तस्कीन क्या

आ रही हैं दस्तकों पर दस्तकें
ज़िंदगी फिर हो गई संगीन क्या

आँख हँसते हँसते क्यूँ रोने लगी
हर ख़ुशी करती है बस ग़मगीन क्या

अश्क 'आदिल' पी रहा हूँ आज-कल
हो गया है ज़ाइक़ा नमकीन क्या