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बे-वज्ह ज़ुल्म सहने की आदत नहीं रही | शाही शायरी
be-wajh zulm sahne ki aadat nahin rahi

ग़ज़ल

बे-वज्ह ज़ुल्म सहने की आदत नहीं रही

सलमान अख़्तर

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बे-वज्ह ज़ुल्म सहने की आदत नहीं रही
अब हम को दुश्मनों की ज़रूरत नहीं रही

वो भी हमारे नाम से बेगाने हो गए
हम को भी सच है उन से मोहब्बत नहीं रही

रहबर तमाम मुल्क के नज़रों से गिर गए
आँखें खुलीं तो दिल में अक़ीदत नहीं रही

ऐसा नहीं कि उन से मोहब्बत न हो मगर
पहले सा जोश पहले सी शिद्दत नहीं रही

क़ुर्बत में उलझनें थीं बहुत रंज थे बहुत
मिलना नहीं रहा तो शिकायत नहीं रही