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बे-वज्ह नहीं उन का बे-ख़ुद को बुलाना है | शाही शायरी
be-wajh nahin un ka be-KHud ko bulana hai

ग़ज़ल

बे-वज्ह नहीं उन का बे-ख़ुद को बुलाना है

अब्बास अली ख़ान बेखुद

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बे-वज्ह नहीं उन का बे-ख़ुद को बुलाना है
आईना-ए-हैरत से महफ़िल को सजाना है

यार ग़म-ए-हस्ती का है तज़्किरा ला-हासिल
मजबूर का जीना ही इक बार उठाना है

मुझ से जो सर-ए-महफ़िल तुम आँख चुराते हो
क्या राज़-ए-मोहब्बत को अफ़्साना बनाना है

हालत के तग़य्युर पर हो मातम-ए-माज़ी क्यूँ
इक वो भी ज़माना था इक ये भी ज़माना है

है गोशा-ए-तन्हाई मंज़ूर मुझे 'बेख़ुद'
इस बज़्म में जाना तो जी और जलाना है