बे-तलब एक क़दम घर से न बाहर जाऊँ 
वर्ना मैं फाँद के ही सात समुंदर जाऊँ 
दास्तानें हैं मकानों की ज़बानों पे रक़म 
पढ़ सकूँ मैं तो मकानों से बयाँ कर जाऊँ 
मैं मूनज़्ज़िम से भला कैसे करूँ समझौता 
डूबने वाले सितारों से मैं क्यूँ डर जाऊँ 
रूह क्या आए नज़र जिस्म की दीवारों में 
इन को ढाऊँ तो उस आईने के अंदर जाऊँ 
और दो चार मसाइब की कसर बाक़ी है 
ये उठा लाऊँ तो मैं दुनिया के सफ़र पर जाऊँ 
ज़हर है मेरे रग-ओ-पै में मोहब्बत शायद 
अपने ही डंक से बिच्छू की तरह मर जाऊँ 
थक के पत्थर की तरह बैठा हूँ रस्ते में 'ज़फ़र' 
जाने कब उठ सकूँ क्या जानिए कब घर जाऊँ
        ग़ज़ल
बे-तलब एक क़दम घर से न बाहर जाऊँ
यूसुफ़ ज़फ़र

