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बे-ताबी-ए-ग़म-हा-ए-दरूँ कम नहीं होगी | शाही शायरी
be-tabi-e-gham-ha-e-darun kam nahin hogi

ग़ज़ल

बे-ताबी-ए-ग़म-हा-ए-दरूँ कम नहीं होगी

शहज़ाद अहमद

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बे-ताबी-ए-ग़म-हा-ए-दरूँ कम नहीं होगी
ये आग तो अब तुम से भी मद्धम नहीं होगी

दामन को ज़िया-ए-रुख़-ए-महताब से भर ले
अब बारिश-ए-अनवार है पैहम नहीं होगी

तू ही दिल-ए-बेताब जो सो जाए तो सो जाए
ये चाँदनी इस रात तो मद्धम नहीं होगी

मैं उन के लिए ग़ैर हूँ वो मेरे लिए ग़ैर
अच्छा है कि अब रंजिश-ए-बाहम नहीं होगी

हम सब को सुना कर ही रहेंगे ग़म-ए-हस्ती
आवाज़ किसी शोर में मुदग़म नहीं होगी

अब क़ाफ़िला-ए-ज़ीस्त ही रुक जाए तो रुक जाए
ये दर्द की लज़्ज़त तो कभी कम नहीं होगी