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बे-सूद एक सिलसिला-ए-इम्तिहाँ न खोल | शाही शायरी
be-sud ek silsila-e-imtihan na khol

ग़ज़ल

बे-सूद एक सिलसिला-ए-इम्तिहाँ न खोल

हकीम मंज़ूर

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बे-सूद एक सिलसिला-ए-इम्तिहाँ न खोल
सब देख देखता ही चला जा ज़बाँ न खोल

अंदर का ही न हो ज़रा बाहर भी देख ले
दिल ख़ून है तो आँख पे ख़ूनीं समाँ न खोल

इक गर्द छाएगी तिरे मोमी दिमाग़ पर
थमने दे आँधियों को अभी खिड़कियाँ न खोल

छुप जाएगा कहाँ तिरे हिस्से का आफ़्ताब
ऐ साया-गर्द सर पे कोई साएबाँ न खोल

इम्कान हो तो कर ले हवा से मुसालहत
बे-फ़ाएदा है वर्ना कोई बादबाँ न खोल

उन से यक़ीं की दौलत-ए-नायाब माँग तू
आँखों पे अपनी कोई फ़ुसूँ और गुमाँ न खोल

'मंज़ूर' हर्फ़ हर्फ़ क़लम का हिसाब दे
लेकिन फ़ुज़ूल दफ़्तर-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ न खोल