बे-सर-ओ-सामाँ कुछ अपनी तब्अ से हैं घर में हम
शहर कहते हैं जिसे हैं उस के पस-मंज़र में हम
शाम डूबी पड़ रहे सूरज के दर पर शब की शब
सुब्ह बिखरी चल पड़े ख़ुद को लिए ठोकर में हम
आगही तू ने हमें किन वुसअतों में गुम किया
बे-निशाँ हर मुल्क में बे-आसरा हर घर में हम
अपने ही सहरा में खो जाएँगे अंदाज़ा न था
बाज़गश्त अपनी लिए फिरते हैं अपने सर में हम
सातवें दर तक पुकार आई ख़ुदी को बे-ख़ुदी
और हर दर से जवाब आया नहीं हैं घर में हम
तेरी दस्तक थी कि सन्नाटा वही हर शाम का
रहरव-ए-कोह-ए-निदा हैं घर के बाम-ओ-दर में हम
चार-सू सहरा में है दर्द-ए-अनस्सहरा की गूँज
काट कर अपनी ज़बाँ रख आए थे पत्थर में हम
छान ये सहरा घुटी हैं इस की चौहद में सदाएँ
काट ये पर्बत दबे हैं इस की ख़ाकिस्तर में हम
अब हमें भाता नहीं पैहम सदाओं का नुज़ूल
अब तो ख़ुद गूँजे हुए हैं गुम्बद-ए-बे-दर में हम
कियाँ मकाँ ताका है दिल ने रात और दिन से परे
बे-ज़बाँ होते चले हैं क़ैद-ए-बाम-ओ-दर में हम
जाने इस रह-रव की नज़रें कौन सी मंज़िल पे हों
एक काँटा सा खटकते हैं दिल-ए-रहबर में हम
ज़हर का प्याला हो पीना या उठानी हो सलीब
सदियों ब'अद आएँ मगर होते हैं इस मंज़र में हम
दश्त-दर-दश्त आसमाँ-बर-दोश चलते हैं 'शहाब'
हम से बंजारे जन्म अपना लिए ठोकर में हम
ग़ज़ल
बे-सर-ओ-सामाँ कुछ अपनी तब्अ से हैं घर में हम
शहाब जाफ़री