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बे-सबब वहशतें करने का सबब जानता है | शाही शायरी
be-sabab wahshaten karne ka sabab jaanta hai

ग़ज़ल

बे-सबब वहशतें करने का सबब जानता है

इस्लाम उज़्मा

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बे-सबब वहशतें करने का सबब जानता है
मैं जो करता हूँ वो क्यूँ करता हूँ सब जानता है

बोलते सब हैं मगर बात कहाँ करते हैं
ये सलीक़ा तो कोई मोहर-ब-लब जानता है

मुझ से गुस्ताख़ को वो कैसे गवारा कर ले
जब कि वो शहर-ए-सुख़न हद्द-ए-अदब जानता है

अपने ही ढब से वो करता है मिरी चारागरी
कब चमकना है मिरा ताले-ए-शब जानता है

कैसे मौसम में कहाँ राहत-ए-जाँ उतरेगा
ऐसी सब बातें दिल-ए-रंज-ए-तलब जानता है

भूल सकता है उसे ये दिल-ए-अय्यार मगर
चश्म-ओ-अबरू का फ़ुसूँ लज़्ज़त-ए-लब जानता है

मुस्कुरा कर जिसे मिलता हूँ हमेशा 'अज़्मी'
इक वही मेरी उदासी का सबब जानता है