EN اردو
बे-रंग थे आरज़ू के ख़ाके | शाही शायरी
be-rang the aarzu ke KHake

ग़ज़ल

बे-रंग थे आरज़ू के ख़ाके

महशर इनायती

;

बे-रंग थे आरज़ू के ख़ाके
वो देख रहे हैं मुस्कुरा के

ये क्या है कि एक तीर-अंदाज़
जब ताके हमारे दिल को ताके

अब सोच रहे हैं किस का दर था
हम सँभले ही क्यूँ थे डगमगा के

इक ये भी अदा-ए-दिलबरी है
हर बात ज़रा घुमा फिरा के

दिल ही को मिटाएँ अब कि दिल में
पछताए हैं बस्तियाँ बसा के

हम वो कि सदा फ़रेब खाए
ख़ुश होते रहे फ़रेब खा के

छू आई है उन की ज़ुल्फ़ 'महशर'
अंदाज़ तो देखिए सबा के