बे-नाम दयारों से हम लोग भी हो आए
कुछ दर्द थे चुन लाए कुछ अश्क थे रो आए
कुछ पास न था अपने बस आस लिए घूमे
इक उम्र की पूँजी थी सो उस को भी खो आए
तौहीन-ए-अना भी की तहसीन-ए-रिया भी की
ये बोझ भी ढोना था ये बोझ भी ढो आए
इक कार-ए-नुमू बरसों करते रहे बिन सोचे
हम बीज मोहब्बत के सहराओं में बो आए
पहचान का हर मंज़र अंजान हुआ आख़िर
लगता है कई सदियाँ इक ग़ार में सो आए

ग़ज़ल
बे-नाम दयारों से हम लोग भी हो आए
शफ़ीक़ सलीमी