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बे-नाम दयारों से हम लोग भी हो आए | शाही शायरी
be-nam dayaron se hum log bhi ho aae

ग़ज़ल

बे-नाम दयारों से हम लोग भी हो आए

शफ़ीक़ सलीमी

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बे-नाम दयारों से हम लोग भी हो आए
कुछ दर्द थे चुन लाए कुछ अश्क थे रो आए

कुछ पास न था अपने बस आस लिए घूमे
इक उम्र की पूँजी थी सो उस को भी खो आए

तौहीन-ए-अना भी की तहसीन-ए-रिया भी की
ये बोझ भी ढोना था ये बोझ भी ढो आए

इक कार-ए-नुमू बरसों करते रहे बिन सोचे
हम बीज मोहब्बत के सहराओं में बो आए

पहचान का हर मंज़र अंजान हुआ आख़िर
लगता है कई सदियाँ इक ग़ार में सो आए