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बे-मेहर-ओ-वफ़ा है वो दिल-आराम हमारा | शाही शायरी
be-mehr-o-wafa hai wo dil-aram hamara

ग़ज़ल

बे-मेहर-ओ-वफ़ा है वो दिल-आराम हमारा

शाह नसीर

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बे-मेहर-ओ-वफ़ा है वो दिल-आराम हमारा
क्या जाने क्या होवेगा अंजाम हमारा

क्या क़हर है औरों से वो मिलता फिरे ज़ालिम
और मुफ़्त में अब नाम है बद-नाम हमारा

ऐ आब-ए-दम-ए-तेग़-ए-सितम-कैश बुझा प्यास
होता है तिरी चाह में अब काम हमारा

लबरेज़ कर इस दौर में ऐ साक़ी-ए-कमज़र्फ़
मत रख मय-ए-गुलगूँ से तही जाम हमारा

किस तरह निकल भागूँ मैं अब आँख बचा कर
सद चश्म से याँ है निगराँ दाम हमारा

ये ज़ुल्फ़-ओ-रुख़-ए-यार है ऐ शैख़ ओ बरहमन
बिल्लाह यहाँ कुफ़्र और इस्लाम हमारा

बैअत का इरादा है तिरे सिलसिले में जूँ
शाना है अब ऐ ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम हमारा

उस शोख़ तलक कोई न पहुँचा सका हमदम
जुज़-हुक़्क़ा यहाँ बोसा ब-पैग़ाम हमारा

क्या कहिए किस अंदाज़ से शरमाए है वो शोख़
तक़रीबन अगर ले है कोई नाम हमारा

सय्याद से कहते थे कि बे-बाल-ओ-परी में
आज़ाद न कर बद है कुछ अंजाम हमारा

पर्वाज़ की ताक़त नहीं याँ ता-सर-ए-दीवार
क्यूँकर हो पहुँचना ब-लब-ए-बाम हमारा

इस इश्क़ में जीते नहीं बचने के 'नसीर' आह
हो जाएगा इक रोज़ यूँ ही काम हमारा