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बे-ख़ुदी में पहलू-ए-इक़रार पहले तो न था | शाही शायरी
be-KHudi mein pahlu-e-iqrar pahle to na tha

ग़ज़ल

बे-ख़ुदी में पहलू-ए-इक़रार पहले तो न था

क़तील शिफ़ाई

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बे-ख़ुदी में पहलू-ए-इक़रार पहले तो न था
इतना ग़ाफ़िल वो बुत-ए-अय्यार पहले तो न था

अहल-ए-दिल जाते हैं अब दार-ओ-रसन की राह से
इस क़दर मुश्किल विसाल-ए-यार पहले तो न था

मिस्र की गलियाँ उतर आई हैं अपने शहर में
हुस्न वालों का ये हाल-ए-ज़ार पहले तो न था

आ रही है ख़ुद-बख़ुद शायद कोई मंज़िल क़रीब
मेहरबाँ यूँ क़ाफ़िला-सालार पहले तो न था

उस में भी कुछ राज़ है वर्ना दयार-ए-हुस्न में
दर्द-मंदों का कोई ग़म-ख़्वार पहले तो न था

होश में आने लगे हैं उन बहारों के तुफ़ैल
वर्ना दीवानों का ये किरदार पहले तो न था

रोज़-ओ-शब अपने लिए हैं क़त्ल के फ़तवे 'क़तील'
मुफ़्ती-ए-शहर इस क़दर दीन-दार पहले तो न था