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बे-ख़ुद मुझे ऐ जल्वा-ए-जानाना बना दे | शाही शायरी
be-KHud mujhe ai jalwa-e-jaanana bana de

ग़ज़ल

बे-ख़ुद मुझे ऐ जल्वा-ए-जानाना बना दे

जौहर निज़ामी

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बे-ख़ुद मुझे ऐ जल्वा-ए-जानाना बना दे
दुनिया मिरी हैरत को तमाशा न बना दे

ऐ इश्क़ अब एहसास से बेगाना बना दे
वर्ना कहीं ग़म-ए-दिल को खिलौना न बना दे

जिस बज़्म में पहुँचूँ मैं बनूँ बज़्म का हासिल
इतना तो तिरी चश्म-ए-करीमाना बना दे

आया हूँ मैं भटका हुआ सहरा-ए-जुनूँ से
ऐ अक़्ल कहीं तू भी न दीवाना बना दे

महफ़िल मिरी आँखों में तुझे ढूँड रही है
तू मुझ को कहीं अंजुमन-आरा न बना दे

बद-बख़्त हूँ जाते हुए डरता हूँ चमन में
क़िस्मत कहीं हर फूल को काँटा न बना दे

'जौहर' पे सितम तर्क-ए-मोहब्बत की है तम्हीद
ये जौर तुम्हें और भी प्यारा न बना दे

हर गाम पे कुछ फूल चुने जाते हो 'जौहर'
ये शौक़ कहीं बाग़ को सहरा न बना दे