बे-ख़याली में कहा था कि शनासाई नहीं
ज़िंदगी रूठ गई लौट के फिर आई नहीं
जो समझना ही न चाहे उसे समझाई नहीं
जो भी इक बार कही बात वो दोहराई नहीं
हुस्न सादा है तिरा मैं भी बहुत आम सी हूँ
मेरी आँखों में किसी नील की गहराई नहीं
मेरा हिस्सा मुझे ख़ामोशी से दे देता है
दर्द के आगे हथेली कभी फैलाई नहीं
अपने अफ़्कार लिए पहलू-नशीं हो के रहा
दिल से दरवेश ने दुनिया तिरी अपनाई नहीं
शब के तारीक लबों पर है कई साल की चुप
ख़ुद से नाराज़ है इतनी कभी मुस्काई नहीं
बास फूलों की चुरा ली है हवाओं ने मगर
जो कली याद की तेरी है वो मुरझाई नहीं
आग ये दोनों तरफ़ क्यूँ न बराबर सी लगे
हाए वो इश्क़ ही क्या जिस में पज़ीराई नहीं
बे-इरादा भी कोई काम तअत्तुल न पड़ा
बा-इरादा थी मुलाक़ात की शब आई नहीं
ग़ज़ल
बे-ख़याली में कहा था कि शनासाई नहीं
सिदरा सहर इमरान