बे-ख़बर साएबाँ अभी तक है
धूप मुझ पर यहाँ अभी तक है
मेरे होने का क्या यक़ीन उसे
ख़ुद मुझे भी गुमाँ अभी तक है
राज़ तो खुल गया ज़माने पर
और वो राज़-दाँ अभी तक है
आज भी तो वही है नहर-ए-फ़ुरात
क्या वही हुक्मराँ अभी तक है
सब तो सैराब हो गए 'मंज़र'
क्यूँ ये जू-ए-रवाँ अभी तक है
ग़ज़ल
बे-ख़बर साएबाँ अभी तक है
जावेद मंज़र