बे-हिसी की भीड़ में वो खो गया
ख़ौफ़ था जिस का वही कल हो गया
हर क़दम पर पाँव क्यूँ ज़ख़्मी हुए
राह-ए-हक़ में कौन काँटे बो गया
रात-भर तो चाँद जागा मेरे साथ
फिर सहर के वक़्त थक कर सो गया
माँ ने बस पानी उबाला रात-भर
रोते रोते उस का बच्चा सो गया
वो कहीं का भी न 'मज़हर' हो सका
हाथ को मुझ से छुड़ा कर जो गया
ग़ज़ल
बे-हिसी की भीड़ में वो खो गया
मज़हर अब्बास