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बे-गुनाही का हर एहसास मिटा दे कोई | शाही शायरी
be-gunahi ka har ehsas miTa de koi

ग़ज़ल

बे-गुनाही का हर एहसास मिटा दे कोई

शमीम जयपुरी

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बे-गुनाही का हर एहसास मिटा दे कोई
मुझ को इस दौर में जीने की सज़ा दे कोई

नक़्श यादों के सभी दिल से मिटा दे कोई
होश में हूँ मुझे दीवाना बना दे कोई

कोई इस शहर में सुनता नहीं दिल की आवाज़
किस तवक़्क़ो पे कहीं जा के सदा दे कोई

आज भी जिन को है अपनों से वफ़ा की उम्मीद
मेरी तस्वीर उन्हें जा के दिखा दे कोई

मेरा माज़ी मुझे क्या जाने कहाँ छोड़ गया
मैं कहाँ दफ़्न हूँ इतना तो बता दे कोई

ग़ैरत-ए-दस्त-ए-तलब बात तो जब है तेरी
अपना दामन ही तिरी सम्त बढ़ा दे कोई

होश वालों ने तो कर रक्खा है दुनिया को तबाह
मुझ को इस दौर में दीवाना बना दे कोई

तौबा तो की है मगर अब भी ये हसरत है 'शमीम'
दे के क़स्में मुझे इक बार पिला दे कोई