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बे-गुनाह क़त्ल होते जाते हैं | शाही शायरी
be-gunah qatl hote jate hain

ग़ज़ल

बे-गुनाह क़त्ल होते जाते हैं

मीर यासीन अली ख़ाँ

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बे-गुनाह क़त्ल होते जाते हैं
सब्र का इम्तिहान है शायद

मरने वालों को भूल जाते हैं
जान है तो जहान है शायद

वो कभी मेरे दिल में रहते हैं
ये भी उन का मकान है शायद

अपनी हस्ती भी याँ है कोई चीज़
एक वहम-ओ-गुमान है शायद

है जो हर शय में हर जगह मौजूद
वो ख़ुदा बे-निशान है शायद

शैख़ हूरों पे जान देते हैं
दिल अभी तक जवान है शायद

जिन का फीका है बे-मज़ा पकवान
उन की ऊँची दुकान है शायद