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बे-ए'तिदालियों से सुबुक सब में हम हुए | शाही शायरी
be-etidaliyon se subuk sab mein hum hue

ग़ज़ल

बे-ए'तिदालियों से सुबुक सब में हम हुए

मिर्ज़ा ग़ालिब

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बे-ए'तिदालियों से सुबुक सब में हम हुए
जितने ज़ियादा हो गए उतने ही कम हुए

intemperance reduced my stature midst of company
the more excess I perpetrated, less I seemed to be

पिन्हाँ था दाम सख़्त क़रीब आशियान के
उड़ने न पाए थे कि गिरफ़्तार हम हुए

the net was laid concealed so very close there to my nest
not even had started to fly that came under arrest

हस्ती हमारी अपनी फ़ना पर दलील है
याँ तक मिटे कि आप हम अपनी क़सम हुए

my own life is a testament to my mortality
to this extent was I erased, myself I swear on me

सख़्ती कशान-ए-इश्क़ की पूछे है क्या ख़बर
वो लोग रफ़्ता रफ़्ता सरापा अलम हुए

what do you ask of people those, that in love hardships bear
they, by degrees from head to toe, as grief themselves appear

तेरी वफ़ा से क्या हो तलाफ़ी कि दहर में
तेरे सिवा भी हम पे बहुत से सितम हुए

me, in this world, your constancy, what compense can provide
for, on me, many cruelties are present, yours aside

लिखते रहे जुनूँ की हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ
हर-चंद इस में हाथ हमारे क़लम हुए

I kept on writing bleeding tales of madness undeterred
even though in this exercise my hands were then severed

अल्लाह रे तेरी तुंदी-ए-ख़ू जिस के बीम से
अजज़ा-ए-नाला दिल में मिरे रिज़्क़-ए-हम हुए

O lord your fierceness is such, that in it's very dread
ingredients of heart's complaints, upon themselves all fed

अहल-ए-हवस की फ़त्ह है तर्क-ए-नबर्द-ए-इश्क़
जो पाँव उठ गए वही उन के अलम हुए

in giving up the war of love, is lover's victory
because those feet that turn away, their standards seem to be

नाले अदम में चंद हमारे सुपुर्द थे
जो वाँ न खिंच सके सो वो याँ आ के दम हुए

a few plaints were entrusted me, ere time of life and death
those there I couldn't draw upon, I draw them here as breath

छोड़ी 'असद' न हम ने गदाई में दिल-लगी
साइल हुए तो आशिक़-ए-अहल-ए-करम हुए

Asad romance could not forswear, e'en when a mendicant
began loving the generous ones, when turned a supplicant