बे-दिए ले उड़ा कबूतर ख़त
यूँ पहुँचता है ऊपर ऊपर ख़त
पुर्ज़े पुर्ज़े हुआ सरासर ख़त
एक ख़त के बने बहत्तर ख़त
क़त्ल होते हैं नामा-बर हर रोज़
लाश पर लाश और ख़त पर ख़त
रोज़ इक नामा-बर कहाँ से आए
यूँ ही रख छोड़ता हूँ लिख कर ख़त
क्या क़लम ने शरर-फ़िशानी की
फुलजड़ी बन गया मिरा हर ख़त
चार हैंगे कुल उन के हम-साए
लिख के दे आए आज हम-सर ख़त
जो कि लेते नहीं हैं मेरा नाम
वो लिखेंगे मुझे मुक़र्रर ख़त
किस तरह सरनविश्त को बदलूँ
ख़त में मिल जाए ग़ैर के गर ख़त
पढ़ तो लेंगे वो नामा मेरा भी
आते रहते हैं उस के अक्सर ख़त
देख कर नाम फेंक देंगे ज़रूर
फिर न लेंगे कभी मुकर्रर ख़त
डाक-घर में टिकट नहीं बाक़ी
'नाज़िम' इतने गए हैं ख़त पर ख़त
ग़ज़ल
बे-दिए ले उड़ा कबूतर ख़त
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम