बे-चेहरगी-ए-उम्र-ए-ख़जालत भी बहुत है
इस दश्त में गिर्दाब की सूरत भी बहुत है
आँखें जो लिए फिरता हूँ ऐ ख़्वाब-ए-मुसलसल!
मेरे लिए ये कार-ए-अज़िय्यत भी बहुत है
तुम ज़ाद-ए-सफ़र इतना उठाओगे कहाँ तक
अस्बाब में इक रंज-ए-मसाफ़त भी बहुत है
दो साँस भी हो जाएँ बहम हब्स-ए-बदन में
ऐ उम्र-ए-रवाँ! इतनी करामत भी बहुत है
कुछ उजरत-ए-हस्ती भी नहीं अपने मुताबिक़
कुछ कार-ए-तनफ़्फ़ुस में मशक़्क़त भी बहुत है
अब मौत मुझे मार के क्या देगी 'ग़ज़ंफ़र'
आँखों को तो ये आलम-ए-हैरत भी बहुत है
ग़ज़ल
बे-चेहरगी-ए-उम्र-ए-ख़जालत भी बहुत है
ग़ज़नफ़र हाशमी