बज़्म से अपनी जो इस तरह उठा देते हैं
जाने किस जुर्म की ये लोग सज़ा देते हैं
मैं ने सोचा था तिरा ग़म ही मुझे काफ़ी है
लोग आते हैं मुझे आ के हँसा देते हैं
ग़ैर तो ग़ैर हैं अपनों की ये हालत देखी
जिन पे तकिया किया वो लोग दग़ा देते हैं
ग़म से घबरा के कभी लब पे जो आती है हँसी
वो तसव्वुर में मुझे आ के रुला देते हैं
अहल-ए-दिल को तो यही कहते सुना है ऐ 'फ़ैज़'
अपने बीमार को दामन की हवा देते हैं

ग़ज़ल
बज़्म से अपनी जो इस तरह उठा देते हैं
मोहम्मद फ़ैज़ुल्लाह फ़ैज़