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बज़्म-ए-नशात-ओ-ऐश का सामाँ लिए हुए | शाही शायरी
bazm-e-nashat-o-aish ka saman liye hue

ग़ज़ल

बज़्म-ए-नशात-ओ-ऐश का सामाँ लिए हुए

मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी

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बज़्म-ए-नशात-ओ-ऐश का सामाँ लिए हुए
आई सबा बहार-ए-गुलिस्ताँ लिए हुए

उड़ता फिरा जुनून ये सामाँ लिए हुए
या'नी हमारे जेब-ओ-गरेबाँ लिए हुए

कब तक जियेगा दार-ए-फ़ना में बता तो दे
सर में ग़ुरूर-ए-आलम-ए-इम्काँ लिए हुए

मेरे जुनून-ए-इश्क़ की वुसअ'त न पूछिए
है ज़र्रा ज़र्रा ज़ोर-ए-बयाबाँ लिए हुए

जिस को उठा सके न पहाड़ और न आसमाँ
वो बार-ए-ग़म हैं हज़रत-ए-इंसाँ लिए हुए

मेरे लिए तो बहर-ए-अलम का ये हाल है
जो मौज उठी वो आई है तूफ़ाँ लिए हुए

इक मजमा-ए-बहार-ओ-ख़िज़ाँ है मिरा वजूद
फिरता हूँ साथ गर्दिश-ए-दौराँ लिए हुए

आसाँ हो क्यूँ न अहल-ए-तजस्सुस को राह-ए-शौक़
हैं अपने साथ ज़ौक़-ए-फ़रावाँ लिए हुए

फेरी लगा रहा हूँ ख़रीदार की है फ़िक्र
फिरता हूँ सर पे मैं ग़म-ए-दौराँ लिए हुए

बहर-ए-नियाज़-ए-नाज़ हम आए हैं ले के दिल
दिल में हुजूम-ए-हसरत-ओ-अरमाँ लिए हुए

'ख़ुशतर' मुझे है नाज़ कि अल्लाह के हुज़ूर
जाऊँगा दिल में दौलत-ए-ईमाँ लिए हुए