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बज़्म आख़िर हुई शम्ओं' का धुआँ बाक़ी है | शाही शायरी
bazm aaKHir hui shamon ka dhuan baqi hai

ग़ज़ल

बज़्म आख़िर हुई शम्ओं' का धुआँ बाक़ी है

सलीम अहमद

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बज़्म आख़िर हुई शम्ओं' का धुआँ बाक़ी है
चश्म-ए-नम में शब-ए-रफ़्ता का समाँ बाक़ी है

कट गई उम्र कोई याद न मंज़र न ख़याल
एक बे-नाम सा एहसास-ए-ज़ियाँ बाक़ी है

किस की जानिब निगराँ हैं मिरी बे-ख़्वाब आँखें
क्या कोई मरहला-ए-उम्र-ए-रवाँ बाक़ी है

सिलसिले उस की निगाहों के बहुत दूर गए
कार-ए-दिल ख़त्म हुआ कार-ए-जहाँ बाक़ी है

हाए अब तक वही अंदाज़-ए-नज़र है उस का
अब भी इक सिलसिला-ए-वहम-ओ-गुमाँ बाक़ी है

आज इक उम्र में उस आँख ने पूछा है 'सलीम'
अब भी क्या पहली सी बे-ताबीे-ए-जाँ बाक़ी है