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बयाबानों पे ज़िंदानों पे वीरानों पे क्या गुज़री | शाही शायरी
bayabanon pe zindanon pe viranon pe kya guzri

ग़ज़ल

बयाबानों पे ज़िंदानों पे वीरानों पे क्या गुज़री

सिकंदर अली वज्द

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बयाबानों पे ज़िंदानों पे वीरानों पे क्या गुज़री
जहान-ए-होश में आए तो दीवानों पे क्या गुज़री

दिखाऊँ तुझ को मंज़र क्या गुलों की पाएमाली का
चमन से पूछ ले नौ-ख़ेज़ अरमानों पे क्या गुज़री

बहार आए तो ख़ुद ही लाला ओ नर्गिस बता देंगे
ख़िज़ाँ के दौर में दिलकश गुलिस्तानों पे क्या गुज़री

निशान-ए-शम-ए-महफ़िल है न ख़ाक-ए-अहल-ए-महफ़िल है
सहर अब पूछती है रात परवानों पे क्या गुज़री

हमारा ही सफ़ीना तेरे तूफ़ानों का बाइस था
हमारे डूबने के बाद तूफ़ानों पे क्या गुज़री

मैं अक्सर सोचता हूँ 'वज्द' उन की मेहरबानी से
ये कुछ गुज़री है अपनों पर तो बेगानों पे क्या गुज़री