बयाबाँ दूर तक मैं ने सजाया था
मगर वो शहर के रस्ते से आया था
दिए की आरज़ू को जब बुझाया था
फिर उस के बाद आहट थी न साया था
उसे जब देखने के बाद देखा तो
वो ख़ुद भी दिल ही दिल में मुस्कुराया था
दिल-ओ-दीवार थे इक नाम की ज़द पर
कहीं लिख्खा कहीं मैं ने मिटाया था
हज़ारों इस में रहने के लिए आए
मकाँ मैं ने तसव्वुर में बनाया था
जहाँ ने मुझ को पहले ही ख़बर कर दी
कबूतर देर से पैग़ाम लाया था
चले मल्लाह कश्ती गीत उम्मीदें
कि जैसे सब को साहिल ने बुलाया था
ग़ज़ल
बयाबाँ दूर तक मैं ने सजाया था
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर