बताएँ क्या अमल इश्क़-ए-हक़ीक़ी का कहाँ तक है
ज़मीं क्या आसमाँ तक है मकाँ क्या ला-मकाँ तक है
तअ'य्युन से बरी हो गर है ला-महदूद का तालिब
कि हद्द-ए-मुल्क-ओ-दुनिया तो वहीं तक है जहाँ तक है
न हो आज़ाद दौर-ए-चर्ख़ की हल्क़ा-ब-गोशी से
तिरा मरकूज़ दिल-ए-माओ-शुमा और ईन-ओ-आँ तक है
तो बिस्मिल्लाह के गुम्बद में क्या है मोतकिफ़ ज़ाहिद
सुकून-ए-ख़ातिर-ए-मुज़्तर हवासों से अमाँ तक है
पहुँच सकता है कब सच्ची ख़ुशी को ऐश-ए-नफ़सानी
कि वो तो आब-ए-रुकनाबाद व जू-ए-मूलियाँ तक है
है शैख़-ओ-बरहमन के दीन की हद दैर-ओ-का'बा तक
सवाद-ए-दीन-ए-इश्क़-ए-बे-ग़रज़ कौन-ओ-मकाँ तक है
यक़ीं से और अमल से पुख़्तगी पाई अक़ीदत ने
पहुँच तेरी तो ऐ नादान बस वहम-ओ-गुमाँ तक है
हक़ीक़त हुस्न की आईना तुझ पर क्यूँकि हो जाती
नज़र तेरी तो ज़ुल्फ़-ओ-ख़ाल-ओ-अबरू-ए-बुताँ तक है
जो हैं मस्त-ए-अलस्त उन को ख़ुमार-ओ-सुक्र का डर क्या
निगाह-ए-तिश्ना-काम-ए-इश्क़ ही दस्त-ए-मुग़ाँ तक है
हसीर-ए-इश्क़ को कब दख़्ल इस महफ़िल में है 'कैफ़ी'
बिसात उस की फ़क़त बैन-ओ-बुका आह-ओ-फ़ुग़ाँ तक है
ग़ज़ल
बताएँ क्या अमल इश्क़-ए-हक़ीक़ी का कहाँ तक है
दत्तात्रिया कैफ़ी