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बस्तियाँ हो गईं बेनाम-ओ-निशाँ रातों-रात | शाही शायरी
bastiyan ho gain benam-o-nishan raaton-raat

ग़ज़ल

बस्तियाँ हो गईं बेनाम-ओ-निशाँ रातों-रात

ख़ातिर ग़ज़नवी

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बस्तियाँ हो गईं बेनाम-ओ-निशाँ रातों-रात
ऐसे तूफ़ान भी आए हैं यहाँ रातों-रात

जी में आता है कि ता'बीर तुझी से पूछें
हो गया ख़्वाब तिरा जिस्म-ए-जवाँ रातों-रात

शाम हंगामा था ख़ुशियाँ थीं हसीं चेहरे थे
खो गई महफ़िल-ए-अहबाब कहाँ रातों-रात

हुस्न जलता रहा शम्ओं' की तपाँ ख़ल्वत में
हो गई मशअ'ल-ए-महताब धुआँ रातों-रात

इक जहाँगीर ख़मोशी की रजज़-ख़्वानी है
हो गया क्या ये मिरे घर का समाँ रातों-रात

कौन इन कलियों की क़िस्मत पे न रोए 'ख़ातिर'
जिन को कर देती है तक़दीर जवाँ रातों-रात