बस्ती तुझ बिन उजाड़ सी है
कम-बख़्त ये शब पहाड़ सी है
शायद कि हुई सरायत-ए-इश्क़
कुछ सीने में चीर-फाड़ सी है
हर-चंद कि बोलते नहीं वो
बाहम पर छेड़-छाड़ सी है
सो रहते हैं एक साथ लेकिन
तलवार के बीच आड़ सी है
इंशा-अल्लाह शायद आया
इस कूचे में भीड़-भाड़ सी है
ग़ज़ल
बस्ती तुझ बिन उजाड़ सी है
इंशा अल्लाह ख़ान