बस्ती बस्ती ख़त-ए-गुम-गश्ता सा आवारा हूँ
कल कहाँ कोई मुझे रोक ले मैं क्या जानूँ
बाल बढ़ जाएँ कि इंकार की ताक़त तो मिले
चाहे फिर अपनी ही आँखों की तरह बुझ जाऊँ
वो ख़ला है तो ख़ला भी है हदों का क़ैदी
मैं हूँ आज़ाद तो आज़ादी का ज़िंदानी हूँ
ज़िंदगी मुझ को ये ज़ंजीर-ए-हवा दे के उदास
मैं परेशान कि मैं साँस लिए जाता हूँ
सूद होने का अदा करना ही है क़िस्तों में
दोस्तो तल्ख़ सी इक बात कहो टूट गिरूँ
कर्ब सा कर्ब है बे-दौर-ओ-ज़माना होना
उस का इक पल हूँ तो काश अब उसे याद आ जाऊँ
क़र्ज़-ख़्वाहों की तरह वक़्त! गरेबाँ मत थाम
क़हक़हा इक कहीं रक्खा था दिए देता हूँ
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ग़ज़ल
बस्ती बस्ती ख़त-ए-गुम-गश्ता सा आवारा हूँ
नजीब रामिश