बस्ता-लब था वो मगर सारे बदन से बोलता था
भेद गहरे पानियों के चुपके चुपके खोलता था
था अजब कुछ सेहर-सामाँ ये भी अचरज हम ने देखा
छानता था ख़ाक-ए-सहरा और मोती रोलता था
रच रहा था धीरे धीरे मुझ में नश्शा तीरगी का
कौन था जो मेरे पैमाने में रातें घोलता था
डर के मारे लोग थे दुबके हुए अपने घरों में
एक बादल सा धुएँ का बस्ती बस्ती डोलता था
काँप काँप उठता था मेरा मैं ही ख़ुद मेरे मुक़ाबिल
मैं नहीं तो फिर वो किस पर कौन ख़ंजर तौलता था

ग़ज़ल
बस्ता-लब था वो मगर सारे बदन से बोलता था
उर्फ़ी आफ़ाक़ी