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बसंत आई है मौज-ए-रंग-ए-गुल है जोश-ए-सहबा है | शाही शायरी
basant aai hai mauj-e-rang-e-gul hai josh-e-sahba hai

ग़ज़ल

बसंत आई है मौज-ए-रंग-ए-गुल है जोश-ए-सहबा है

मह लक़ा चंदा

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बसंत आई है मौज-ए-रंग-ए-गुल है जोश-ए-सहबा है
ख़ुदा के फ़ज़्ल से ऐश-ओ-तरब की अब कमी क्या है

बयाँ मैं क्या करूँ उस के शबिस्ताँ का तआ'लल्लाह
क़ज़ा-ओ-क़द्र जिस के जश्न का अब कार-फ़रमा है

सख़ावत में कोई हम-सर न हो उस का ज़माने में
वही करता है पूरा जिस के दिल में जो इरादा है

ख़िज़र की उम्र हो उस की तसद्दुक़ से अइम्मा के
निज़ामु-उद-द्दौला आसफ-जाह जो सब का मसीहा है

बही-ख़्वान-ए-करम से है सदा उम्मीद 'चंदा' को
किसी की भी न हो मुहताज तुम से ये तमन्ना है