बस ये हुआ कि रिश्तों के सब हाथ कट गए
हम लोग अपने-आप ही आपस में बट गए
आसार-ए-मुम्किनात थे जितने वो घट गए
सूरज निकल के आया तो कोहरे भी छट गए
ये बुज़-दिली थी अपनी कि कुछ भी नहीं कहा
होने दिया जो होना था रस्ते से हट गए
उन से तो जा के मिलना भी दुश्वार हो गया
मसरूफ़ियत के नाम पे हम भी सिमट गए
हम क्या कहें कि कैसे हिमाक़त ये हो गई
जो था सबक़ भुलाने का उस को भी रट गए
दीवार-ओ-दर से अब भी रिफ़ाक़त वही रही
तन्हाइयों में आए तो उन से लिपट गए
'ख़ुर्शीद' उस पे सोचिए किस का क़ुसूर है
आसूदगी के लम्हे भी आ कर पलट गए

ग़ज़ल
बस ये हुआ कि रिश्तों के सब हाथ कट गए
ख़ुर्शीद सहर