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बस यही तो मुद्दआ है आप के इरशाद का | शाही शायरी
bas yahi to muddaa hai aap ke irshad ka

ग़ज़ल

बस यही तो मुद्दआ है आप के इरशाद का

मुर्ली धर शाद

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बस यही तो मुद्दआ है आप के इरशाद का
'शाद' किस ने नाम रक्खा आशिक़-ए-नाशाद का

लीजिए हाज़िर है नज़राना दिल-ए-नाशाद का
टालना आसाँ न था कुछ आप के इरशाद का

बर्क़ समझा है जिसे सारा ज़माना देखिए
आसमाँ पर चढ़ गया लच्छा मिरी फ़रियाद का

हश्र से इश्क़-ए-निहाँ की और शोहरत हो गई
एक आलम क़िस्सा-ख़्वाँ निकला मिरी रूदाद का

बे-तअल्लुक़ हो के रहना बाग़-ए-आलम में मुहाल
पा-ब-गुल होना तो देखो सर्व से आज़ाद का

बाग़बाँ सय्याद गुलचीं सब के सब देखा किए
आशियाँ उजड़ा किया इक ख़ानमाँ-बर्बाद का

तर्क-ए-उल्फ़त पर जो मैं ज़िंदा रहा घबरा गए
ढूँडते हैं अब नया पहलू कोई बेदाद का

ज़िक्र-ए-दुश्मन पर मुझे झुटलाने वाले फिर तू कह
तुम हो मुज़्तर क्या भरोसा है तुम्हारी याद का

गर्मी-ए-दाग़-ए-जिगर से मोम हो कर बह गया
तुम उसी ख़ंजर को समझे थे कि है फ़ौलाद का

आँख से कुछ हो इशारा कुछ तबस्सुम लब पे हो
'शाद' करना कुछ नहीं मुश्किल दिल-ए-नाशाद का

तेरी सब सुनते हैं मेरी कोई सुनता ही नहीं
किस से रोऊँ जा के अब दुखड़ा तिरी बेदाद का

'शाद' यकता-ए-जहाँ है आप के सर की क़सम
देख लेना जा-नशीं होगा यही उस्ताद का