EN اردو
बस रूह सच है बाक़ी कहानी फ़रेब है | शाही शायरी
bas ruh sach hai baqi kahani fareb hai

ग़ज़ल

बस रूह सच है बाक़ी कहानी फ़रेब है

शाहिद ज़की

;

बस रूह सच है बाक़ी कहानी फ़रेब है
जो कुछ भी है ज़मीनी ज़मानी फ़रेब है

रंग अपने अपने वक़्त पे खुलते हैं आँख पर
अव्वल फ़रेब है कोई सानी फ़रेब है

सौदागरान-ए-शोलगी-ए-शर के दोश पर
मुश्कीज़-गाँ से झाँकता पानी फ़रेब है

इस घूमती ज़मीं पे दोबारा मिलेंगे हम
हिजरत फ़रार नक़्ल-ए-मकानी फ़रेब है

दरिया की अस्ल तैरती लाशों से पोछिए
ठहराव एक चाल रवानी फ़रेब है

अब शाम हो गई है तो सूरज को रोइए
हम ने कहा न था कि जवानी फ़रेब है

बार-ए-दिगर समय से किसी का गुज़र नहीं
आइंदगाँ के हक़ में निशानी फ़रेब है

इल्म इक हिजाब और हवास आइने का ज़ंग
निस्यान हक़ है याद-दहानी फ़रेब है

तज्सीम कर कि ख़्वाब की दुनिया है जावेदाँ
तस्लीम कर कि आलम-ए-फ़ानी फ़रेब है

'शाहिद' दारोग़-गोई-ए-गुलज़ार पर न जा
तितली से पूछ रंग-फ़िशानी फ़रेब है