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बस कि पाबंदी-ए-आईन-ए-वफ़ा हम से हुई | शाही शायरी
bas ki pabandi-e-ain-e-wafa humse hui

ग़ज़ल

बस कि पाबंदी-ए-आईन-ए-वफ़ा हम से हुई

ख़लील-उर-रहमान आज़मी

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बस कि पाबंदी-ए-आईन-ए-वफ़ा हम से हुई
ये अगर कोई ख़ता है तो ख़ता हम से हुई

ज़िंदगी तेरे लिए सब को ख़फ़ा हम ने किया
अपनी क़िस्मत है कि अब तू भी ख़फ़ा हम से हुई

रात भर चैन से सोने नहीं देती हम को
इतनी मायूस तिरी ज़ुल्फ़-ए-रसा हम से हुई

सर उठाने का भला और किसे यारा था
बस तिरे शहर में ये रस्म अदा हम से हुई

बार-हा दस्त-सितम-गर को क़लम हम ने किया
बार-हा चाक अंधेरे की क़बा हम से हुई

हम ने उतने ही सर-ए-राह जलाए हैं चराग़
जितनी बरगश्ता ज़माने की हवा हम से हुई

बार-ए-हस्ती तो उठा उठ न सका दस्त-ए-सवाल
मरते मरते न कभी कोई दुआ हम से हुई

कुछ दिनों साथ लगी थी हमें तन्हा पा कर
कितनी शर्मिंदा मगर मौज-ए-बला हम से हुई