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बस-कि दुश्वार है उस शख़्स का चेहरा लिखना | शाही शायरी
bas-ki dushwar hai us shaKHs ka chehra likhna

ग़ज़ल

बस-कि दुश्वार है उस शख़्स का चेहरा लिखना

मोहसिन ज़ैदी

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बस-कि दुश्वार है उस शख़्स का चेहरा लिखना
वर्ना मुश्किल तो नहीं कोई सरापा लिखना

ये भी मुमकिन है कि तहरीर बदल दी जाए
दोस्तो अपना बयाँ ख़ून से पुख़्ता लिखना

कुछ हमें सैर-ओ-तमाशा से नहीं दिलचस्पी
शग़्ल बस अपना है तन्हाई में पढ़ना लिखना

दिल का दरवाज़ा तुम्हारे लिए वा रक्खेंगे
लौट आने का कभी हो जो इरादा लिखना

भेज तो सकते हो तुम लिख के शिकायत उन को
शर्त बस ये है कि कोई लफ़्ज़ न चुभता लिखना

लोग अस्नाद के कश्कोल लिए फिरते हैं
कितना बे-सूद है इस दौर में पढ़ना लिखना

कैसे दीवाने हैं लिखते हुए थकते ही नहीं
एक ही लफ़्ज़ को सीधा कभी उल्टा लिखना

पास-ए-तहज़ीब तो कुछ पास-ए-क़लम है हम को
वर्ना आता है हमें जैसे को तैसा लिखना

लोग जब लिख के सियह कर गए दीवारें तक
कौन पढ़ता है भला रेत पे मेरा लिखना

सर में सौदा था अजब लिख गया उस को क्या कुछ
दिल ने समझाया बहुत था कि न ऐसा लिखना

याद क्या रखता कि वो ज़ूद-फ़रामोश भी था
मैं भी कुछ भूल गया उस को तक़ाज़ा लिखना

लिखते ही जाएँगे हम उन को अरीज़े 'मोहसिन'
वो पढ़ें या न पढ़ें काम है अपना लिखना