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बस कि चूँ बद्र-ए-ज़माना ये घटाता है मुझे | शाही शायरी
bas ki chun badr-zamana ye ghaTata hai mujhe

ग़ज़ल

बस कि चूँ बद्र-ए-ज़माना ये घटाता है मुझे

मीर हसन

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बस कि चूँ बद्र-ए-ज़माना ये घटाता है मुझे
दिन-ब-दिन और ही आलम नज़र आता है मुझे

हुस्न नैरंगी-ए-आलम का अजब रंग से कुछ
ऐन नैरंगी में सौ रंग दिखाता है मुझे

इतना मालूम तो होता है कि जाता हूँ कहीं
कोई है मुझ में कि मुझ से लिए जाता है मुझे

याद मैं किस की करूँ मुझ को कहाँ होश-ओ-हवास
अपनी ही याद से ये इश्क़ भुलाता है मुझे

तुर्फ़ा आलम है कि हर एक से वो माया-नाज़
आप रहता है अलग और भिड़ाता है मुझे

छोड़ कर मुझ को वो तन्हा कोई जाता है कहीं
ये भी इक छेड़ है उस को कि कुढ़ाता है मुझे

मुझ को क्यूँ खींचे लिए जाए है तक़्सीर मिरी
उम्र टुक रह तो सही कौन बुलाता है मुझे

मुझ में और दिल में सदा है सबक़-ए-इश्क़ का दर्स
मैं सुनाता हूँ उसे और वो सुनाता है मुझे

मेरे नाख़ूनों में मैं तुझ से किए चार अबरू
अपनी क्या तेग़ से हर दम तू डराता है मुझे

ताइर-ए-रंग-ए-हिना हूँ तो लगूँ तेरे हाथ
चुटकियों में तू अबस यार उड़ाता है मुझे

तुझ को मंज़ूर जफ़ा मुझ को है मतलूब वफ़ा
न ये भाता है तुझे और न वो भाता है मुझे

जो मिरी चिढ़ है उसी बात का है तुझ को ज़ौक़
आह तू दीदा-ओ-दानिस्ता खुजाता है मुझे

फिर फिर आईने में मुँह देखने लगता है 'हसन'
एक दम आप में वो शोख़ जो पाता है मुझे