बस इस तक़्सीर पर अपने मुक़द्दर में है मर जाना 
तबस्सुम को तबस्सुम क्यूँ नज़र को क्यूँ नज़र जाना 
ख़िरद वालों से हुस्न ओ इश्क़ की तन्क़ीद क्या होगी 
न अफ़्सून-ए-निगह समझा न अंदाज़-ए-नज़र जाना 
मय-ए-गुलफ़ाम भी है साज़-ए-इशरत भी है साक़ी भी 
बहुत मुश्किल है आशोब-ए-हक़ीक़त से गुज़र जाना 
ग़म-ए-दौराँ में गुज़री जिस क़दर गुज़री जहाँ गुज़री 
और इस पर लुत्फ़ ये है ज़िंदगी को मुख़्तसर जाना
        ग़ज़ल
बस इस तक़्सीर पर अपने मुक़द्दर में है मर जाना
असरार-उल-हक़ मजाज़

