बस हो भी चुकीं हसरत-ए-परवाज़ की बातें
फिर छेड़ किसी अंजुमन-ए-नाज़ की बातें
उर्यानी-ए-एहसास है कुछ हुस्न न कुछ इश्क़
ये राज़ की बातें हैं न वो राज़ की बातें
सादा सा मज़ेदार सा इक शख़्स हो जैसे
सुनते हैं वो किस लुत्फ़ से ग़म्माज़ की बातें
कुछ ज़ौक़ भी इबरत का तबीअ'त में है बाक़ी
कुछ ज़ौक़ की हामिल भी हैं तन्नाज़ की बातें
मुतरिब जो हुनर-मंद हो दम-साज़ हो फिर देख
हर साज़ में मस्तूर हैं हर साज़ की बातें
पामाल ये जाने कि सर-अफ़राज़ है वो भी
पामाल से यूँ कीजे सर-अफ़राज़ की बातें

ग़ज़ल
बस हो भी चुकीं हसरत-ए-परवाज़ की बातें
ख़ुर्शीदुल इस्लाम