बस एक वक़्त का ख़ंजर मिरी तलाश में है 
जो रोज़ भेस बदल कर मिरी तलाश में है 
अधूरे ख़्वाबों से उकता के जिस को छोड़ दिया 
शिकन-नसीब वो बिस्तर मिरी तलाश में है 
अज़ीज़ हूँ मैं तुझे किस क़दर कि हर इक ग़म 
तिरी निगाह बचा कर मिरी तलाश में है 
मैं एक क़तरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है 
हुआ करे जो समुंदर मिरी तलाश में है 
वो एक साया है अपना हो या पराया हो 
जनम जनम से बराबर मिरी तलाश में है 
मैं जिस के हाथ में इक फूल दे के आया था 
उसी के हाथ का पत्थर मिरी तलाश में है 
वो जिस ख़ुलूस की शिद्दत ने मार डाला 'नूर' 
वही ख़ुलूस मुकर्रर मिरी तलाश में है
 
        ग़ज़ल
बस एक वक़्त का ख़ंजर मिरी तलाश में है
कृष्ण बिहारी नूर

